जयपुर। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम का जन्म वैशाख कृष्णपक्ष तृतीया को भृगुवंशीय ऋषि जमदग्नि की पत्नी रेणुका के गर्भ से हुआ था।

विष्णु के दस अवतारों में से छठे अवतार के रूप मे अवतरित इनका प्रारम्भिक नाम राम रखा गया, लेकिन अपने गुरू भगवान शिव से प्राप्त अमोघ दिव्य शस्त्र परशु (फरसा) को धारण करने के कारण यह परशुराम कहलाए।

जन्म समय में छह ग्रह उच्च के होने से वे तेजस्वी, ओजस्वी, वर्चस्वी महापुरुष थे। प्राणी मात्र का हित ही उनका सर्वोपरि लक्ष्य था। न्याय के पक्षधर परशुराम जी दीन दुखियों, शोषितों और पीड़ितों की निरंतर सहायता और रक्षा करते थे।

आखिर में परशुराम  ने कश्यप ऋषि को पृथ्वी दान कर स्वयं महेन्द्र पर्वत पर निवास करने लगे। शास्त्रों के अनुसार ये चिरंजीवी हैं व आज भी जीवित व तपस्या में लीन हैं। परशुराम का सप्त चिरंजीवियों में स्थान है। अश्वत्थामा वलिर्व्यासो हनुमांशच विभीषण:। कृपछ परशुरामश्च सप्तैते चिरजीवन:।।

1- क्षमाशीलता

शिव धनुष भंग प्रकरण में लक्ष्मण द्वारा असीमित तर्क के बाद भई श्रीराम के अनुरोध पर परशुराम ने उन्हें क्षमा दान दिया। यही नहीं कर्ण का सत्य उजागर होने के बाद भी उन्होंने समसेत विद्या भूलने के बजाए सिर्फ इतना ही श्राप दिया कि दिव्यास्त्र चलाना उस समय भूल जाओगे, जब इसकी सर्वाधिक आवश्यकता होगी।

भगवान गणेश ने जब शिवजी से मिलने के लिए उन्हें जबरन रोका तो उनसे युद्ध ना करके उनका एक दांत ही भंग कर उन्हें दंड दिया। भाइयों द्वारा पिता की अवज्ञा के फलस्वरूप वे पत्थर में परिवर्तित हो गए परंतु पिता से मिले वरदान के रूप में उन्होंने भाइयो को क्षमा दान दिलाया।

2- दानशीलता

सहृदयी और दानशीलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया और पूरी दुनिया को जीत लिया। उसके बाद संपूर्ण धरा का दान कर दिया और खुद महेन्द्र पर्वत चले गए।

भगवान परशुराम अपने जीवन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे तभी द्रोणाचार्य उनके पास पहुंचे। वे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे, परशुराम ने दयाभाव से कोई अस्त्र-शस्त्र चुनने के लिए कहा।

तब चतुर द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं आपके सभी अस्त्र-शस्त्र उनके मंत्र सहित चाहता हूं ताकि जब उनकी आवश्यकता हो, प्रयोग किया जा सके। परशुराम जी ने कहा ‘एवमस्तु!’ अर्थात् ऐसा ही हो।

3- नैतिकता व न्यायप्रियता

भगवान परशुराम ने अराजकता समाप्त करने के लिए पहले सहस्त्रार्जुन और बाद में उसके वंश का समूल नाश किया। वे स्वंय इससे प्रसन्न नहीं थे लेकिन न्याय के खातिर उन्होंने यह किया।

महाभारत काल में अंबिका से विवाह के लिए मना करने पर इन्होंने भीष्म पितामह से भी युद्ध किया और उनकी प्रतिज्ञा की रक्षा करने के लिए पितरों के आदेश के उपरांत उन्होंने युद्ध समाप्त कर दिया।

4- माता-पिता को माना ईश्वर

भगवान परशुराम माता-पिता को ईश्वर तुल्य मानते थे। उनका आदेश उनके लिए सबकुछ था। एक बार पिता के आदेश पर आंखे मूंद सिर धड़ से अलग कर दिया। पिता उनकी पितृ भक्ति से प्रसन्न हुए और वरदान दिया। वरदान में उन्होंने मां का जीवन वापस मांगकर मां के प्रति अपनी श्रद्धा दिखाई।

5- संहारक और भक्ति का संगम

भगवान परशुराम ने आवेश में कभी अपना विवेक नहीं खोया। उनका आवेशित होना गलत नहीं रहा क्योंकि उनके जन्म का उद्देश्य ही वही था। ( भगवान परशुराम श्री विष्णुके अावेशावतार थे)। यह बात शिव-धनुष भंग, लक्ष्मण विवाद या कर्ण को श्राप देते समय भी सही सिद्ध होती है।

परशु प्रतीक है शौर्य  व ताकत का, राम प्रतीक हैै मर्यादा, सत्य-सनातन व धर्म का, उसी तरह परशुराम शास्त्र व शस्त्र का अनुठा संगम हैं।